बुदनी के लकड़ी के खिलौनों का इतिहास

बुदनी, मध्य प्रदेश के होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) जिले में नर्मदा नदी के किनारे बसा एक छोटा सा कस्बा, अपनी लकड़ी की हस्तशिल्प और विशेष रूप से लकड़ी के खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है। बुदनी के खिलौनों का इतिहास लगभग एक सदी से भी अधिक पुराना है और यह यहाँ की विश्वकर्मा कारीगर समुदाय की पारंपरिक कला का हिस्सा है। यह कला न केवल स्थानीय संस्कृति को दर्शाती है, बल्कि भारत के स्वदेशी हस्तशिल्प उद्योग के विकास की कहानी भी बयान करती है।
उत्पत्ति और शुरुआत
बुदनी में लकड़ी के खिलौनों की परंपरा का प्रारंभ 19वीं सदी के अंत या 20वीं सदी की शुरुआत में माना जाता है। उस समय यहाँ के कारीगर मुख्य रूप से घरेलू उपयोग की वस्तुएँ जैसे बेलन, लट्टू, खंभे, और कपड़ों के हुक बनाते थे। बच्चों के लिए खिलौने बनाना शुरू में एक छोटा साइड वर्क था, जो धीरे-धीरे मुख्य शिल्प में बदल गया। यह परंपरा संभवतः कर्नाटक के चन्नापटना की लकड़ी के खिलौनों से प्रेरित थी, जो उस समय भारत में प्रसिद्ध थे। हालाँकि, बुदनी के कारीगरों ने इसे अपनी स्थानीय सामग्री और तकनीकों के साथ एक अलग पहचान दी।
सामग्री और तकनीक
बुदनी के खिलौनों के लिए मुख्य रूप से दूधी लकड़ी (एक नरम और हल्की लकड़ी) का उपयोग होता है, जो विंध्याचल के जंगलों से प्राप्त की जाती है। यह लकड़ी आसानी से तराशी जा सकती है और इसमें प्राकृतिक सुगंध होती है। खिलौनों को आकर्षक बनाने के लिए लाख (Lac) का उपयोग किया जाता है, जो प्राकृतिक रूप से कीड़ों से प्राप्त होता है। लाख को रंगों के साथ मिलाकर गर्म किया जाता है और फिर लकड़ी पर लगाया जाता है, जिससे खिलौनों को चमकदार और रंगीन फिनिश मिलती है।
प्रक्रिया इस प्रकार है:
लकड़ी का चयन: छोटी टहनियों को चुना जाता है ताकि पेड़ों को नुकसान न हो।
खराद का उपयोग: लकड़ी को खराद मशीन पर तराशा जाता है, जिसे हाथ या पैर से चलाया जाता था (आजकल बिजली से भी)।
नक्काशी: छेनी और अन्य औजारों से बारीक डिज़ाइन बनाए जाते हैं।
रंगाई और पॉलिश: लाख और प्राकृतिक रंगों से खिलौनों को सजाया जाता है, फिर रेगमाल से चमकाया जाता है।

खिलौनों के प्रकार
बुदनी में बनने वाले खिलौने बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ सांस्कृतिक महत्व भी रखते हैं। इनमें शामिल हैं:
लट्टू: पारंपरिक घूमने वाला खिलौना।
खिलौने वाली गाड़ियाँ: छोटे पहियों वाली गाड़ियाँ और बैलगाड़ियाँ।
तिपहिया साइकिल: लकड़ी से बनी छोटी साइकिलें।
पशु-पक्षियों की आकृतियाँ: हाथी, घोड़े, और पक्षियों की छोटी मूर्तियाँ।
सजावटी खिलौने: फूलदान और छोटे बर्तन जो खेलने के साथ सजावट के लिए भी होते हैं।

विकास और लोकप्रियता
स्वतंत्रता के बाद के दशकों (1950-60) में बुदनी के खिलौनों की माँग बढ़ी। उस समय प्लास्टिक के खिलौने बाजार में नहीं आए थे, इसलिए लकड़ी के खिलौने बच्चों के लिए मुख्य विकल्प थे। बुदनी के खिलौने न केवल स्थानीय बाजारों में, बल्कि मध्य प्रदेश के अन्य हिस्सों और पड़ोसी राज्यों में भी बिकने लगे। यहाँ की शाही परंपराओं और ग्रामीण जीवन से प्रेरित डिज़ाइनों ने इन्हें अनूठा बनाया। कुछ स्रोतों के अनुसार, बुदनी के खिलौनों को मेलों और प्रदर्शनियों में भी प्रदर्शित किया जाता था, जिससे इनकी पहचान बढ़ी।
चुनौतियाँ और पतन
1970-80 के दशक में प्लास्टिक के खिलौनों के आने से बुदनी की लकड़ी के खिलौनों की माँग पर असर पड़ा। सस्ते और बड़े पैमाने पर उत्पादित प्लास्टिक खिलौनों ने पारंपरिक हस्तशिल्प को पीछे छोड़ दिया। इसके अलावा:
जंगल से लकड़ी की उपलब्धता कम होना।
कारीगरों की नई पीढ़ी का इस पेशे में रुचि न लेना।
आधुनिक मशीनों और बाजार तक पहुँच की कमी।
इन कारणों से बुदनी के खिलौनों का उत्पादन धीरे-धीरे कम हो गया।
पुनर्जनन और वर्तमान स्थिति
हाल के वर्षों में, पर्यावरण के प्रति जागरूकता और हस्तशिल्प के प्रति बढ़ते रुझान के कारण बुदनी के खिलौनों में फिर से रुचि बढ़ी है। ये खिलौने पर्यावरण के अनुकूल, गैर-विषैले, और टिकाऊ होने के कारण माता-पिता के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं। स्थानीय सरकार और गैर-सरकारी संगठनों ने भी कारीगरों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रशिक्षण और बाजार उपलब्ध कराने की पहल की है। आज बुदनी के खिलौने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और हस्तशिल्प मेलों के माध्यम से देश-विदेश तक पहुँच रहे हैं।
सांस्कृतिक महत्व
बुदनी के खिलौने केवल खेल की वस्तु नहीं हैं, बल्कि ये ग्रामीण भारत की सादगी, कारीगरी, और पर्यावरण के साथ तालमेल को दर्शाते हैं। इन खिलौनों में स्थानीय जीवनशैली और परंपराओं की झलक मिलती है, जैसे बैलगाड़ी और पशुओं की आकृतियाँ।

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